Friday, July 2, 2010

क्यों नहीं बनती अब सिल्वर जुबली फिल्में ?



हाउसफुल और राजनीति देष के सभी हिस्सों में अच्छा कारोबार करने में कामयाब हुई, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि इन दोनों ही फिल्मों की कहानी हर वर्ग के दर्षक के लिए थी-मल्टीप्लेक्स के दर्षकों के लिए भी,, ठाठिया सिनेमाघरों के दर्षकों के लिए भी.
2010 की पहली छमाही खत्म हो चुकी है और बाॅलीवुड के हिस्से में अब तक तसल्ली लायक कामयाबी भी नहीं है. छह महीनें में आधा दर्जन से भी कम फिल्मों की कामयाबी के साथ ही 150 से ज्यादा फिल्मों की नाकामी भी साल की पहली छमाही में इंडस्ट्री के साथ जुड़ गई है. टिकट खिड़की कें आंकड़ों पर नजर डाले तो पहली छमाही में-अक्षय कुमार की हाउसफुल, अजय देवगन-रणबीर कपूर की राजनीति ही दो ऐसी फिल्में रही,, जिन्हें अखिल भारतीय कामयाबी मिली. मतलब मात्र ये फिल्में ही पूरे देष में अच्छा कारोबार करने में कामयाब हो पाई.
कमयाबी के इस बेहद कम प्रतिषत की कई वजहें है, जिनमें से एक है निर्माता-निर्देषकांे द्वारा ऐसी फिल्में बनाना जो किसी वर्ग विषेष पर केंद्रित होतीे है. मल्टीप्लेक्स सिनेमा के इस दौर में फिल्मकार अब ऐसी फिल्मो को तरजीह देने लगे हैं, जो किसी वर्ग विषेष पर केंद्रित हो. नतीजा यह निकलता है कि ऐसी फिल्में उस वर्ग विषेष में तो कामयाब होेेे जाती है, लेकिन असल कामयाबी से वह दूर ही रहता है.
साल की शुरूआत में रिलीज हुई फरहान अख्तर अभिनीत कार्तिक काॅलिंग कालिंग की ही मिसाल लीजिए. फिल्म का गीत-संगीत उम्दा था, कहानी ताजा थी और फरहान अख्तर जैसा गंभीर अभिनेता भी था. बावजूद इसके अगर यह फिल्म नाकाम रही, तो इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि फिल्म की कहानी सिर्फ महानगर के युवाओं पर केद्रित थी. नतीजा यह रहा कि मल्टीप्लेक्स में तो फिल्म कुछ हद तक चली,, लेकिन छोटे शहरों, कस्बों और एकल सिनेमाघरों में फिल्म औंधे मूंह गिर गई. ऐसा ही कुछ हाल अभय देओल अभिनीत फिल्म रोड़ मूवी का भी हुआ. अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त निर्देषक देव बेनेगल के निर्देषन में बनी इस फिल्म ने दुनियाभर के फिल्म फेस्टिवल में खूब तारीफे और पुरस्कार बटौरे थे. लेकिन फिल्म जब देष के सिनेमाघरों में रिलीज हुई तो कोई करिष्मा नहीं दिखा पाइ्र्र. वजह यह थी कि फिल्म केवल आर्ट फिल्मों के शौकीन दर्षकों को ध्यान में रखकर ही बनाई थी. नतीजा यह कि फिल्म ने फेस्टिवल में तो खूब पुरस्कार जीते, लेकिन जब दर्षकों के सामने आई, तो आर्ट फिल्मों के शौकीनों को छोड़कर किसी ने भी इसे पसंद नहीं किया. कुछ ऐसा ही राम गोपाल वर्मा की फूंक-2, अजय देवगन की फिल्म अतिथि तुम कब जाओगे, का भी हुआ. ये फिल्में देष के कुछ हिस्सों में तो कामयाब रही,, लेकिन अखिल भारतीय कामयाबी इनसे दूर ही रही.
दूसरी ओर हाउसफुल और राजनीति देष के सभी हिस्सों में अच्छा कारोबार करने में कामयाब हुई, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि इन दोनों ही फिल्मों की कहानी हर वर्ग के दर्षक के लिए थी-मल्टीप्लेक्स के दर्षकों के लिए भी,, ठाठिया सिनेमाघरों के दर्षकों के लिए भी. हास्य-मसाला फिल्में बनाने के लिए विख्यात साजिद खान की फिल्म हाउसफुल में काॅमेडी की भरपुर खुराक थी,, जिसके चलते यह 80 करोड़ से ज्यादा की कमाई करने में कामयाब रही. वही,, नाना पाटेकर, अजय देवगन, मनोज वाजपेयी और रणबीर कपूर जैसे सितारों से सजी राजनीति में महापुराण महाभारत को आधुनिक तरीके से प्रस्तुत किया गया था. चूंकि भ्रष्ट राजनीति से आजकल देष के हर हिस्से में जनता का पाला पड़ता है, इसलिए यह फिल्म हर किसी की जिंदगी के करीब थी. इसीलिए राजनीति जैसे गंभीर विषय पर आधारित होने के बाद भी फिल्म सौ करोड़ की कमाई करने के बेहद करीब है. असल में तो, आमिर खान की थ्री इडियट्स और गजनी के बाद यह भारतीय फिल्म इतिहास की तीसरी सबसे कामयाब फिल्म बन गई है.
बात बिल्कुल सीधी सी है, अगर फिल्मकारों को पूरे देष में कामयाबी हासिल करनी है, तो उनको ऐसी फिल्में बनाना होगी, जो हर दर्षक वर्ग को पसंद आए. अगर ऐसा हो जाए, तो हर साल दौ-तीन सौ करोड़ का घाटा उठाने वाला बाॅलीवुड फिर से मुनाफे की स्थिति में आ सकता है.

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