Friday, July 9, 2010

फिल्म समीक्षा: रेड अलर्ट


बाॅलीवुड में आमतौर पर भीरू-मतलब डरपोक- लोग होते हैं, सो किसी भी फिल्म की शुरूआत से पहले ही बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया जाता है-इस फिल्म के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक है और इनका किसी व्यक्ति, या घटना से कोई संबंध नहीं है. सो, सुनील शेट्टी,, समीरा रेड्डी,, भाग्यश्री,, विनोद खन्ना जैसे सितारों से सजी फिल्म देखने जाने पर फिल्म चालू होने के दो मिनट बाद ही इसके निर्माता टीपी अग्रवाल और निर्देषक को शाबासी देने का मन करता है. वजह, दोनों बंदों ने पूरी ईमानदारी बरतते हुए और इससे भी बढ़कर हिम्मत दिखाते हुए फिल्म में लिख दिया है: यह फिल्म वास्तविक घटना पर आधारित है.
सो, पहले दो मिनट में निर्देषक अनंत महादेवन को शाबासी दे दी,, तो फिर पूरी फिल्म में भी बस पिक्चर देखते जाइए और उनको शाबासी देते जाइए. मतलब यह कि यह फिल्म कमाल की है. या फिर यह कहें कि आंखें खोल देने वाली है. यह फिल्म आपको हंसाती नहीं है, गुदगुदाती नहीं है, आपके दिमाग में कई सवाल छोड़ जाती है. दिल पर प्रहार करती है और आंखों को मजबूर करती है कि आप बिना ईधर-उधर ध्यान भटकाएं बस सिनेमाघर के पर्दे पर ही आंख टिकाएं रहे.
वैसे, ईमानदारी की बात यह है कि फिल्म की कहानी ऐसी है, जो आजकल हर दूसरे दिन अखबारों में पढ़ने को मिल जाती है या टीवी चैनलों पर देखने को मिल जाती है. मुद्दा नक्सलवाद का है , जो इन दिनों देष का सबसे बड़़ा मुद्दा बना हुआ है. तो फिर, तारीफ कीजिए आप फिल्म की लेखिका अरूणा राजे की,, जिन्होंने कई बार सुनी और देखी गई इस कहानी को भी अद्भूत बना दिया है. जी हां, अद्भूत, क्योंकि नक्स्लवाद के बारे मे आपने भले हीे अखबारों और टीवी चैनलों की मेहरबानी से पीएचडी कर मारी हो, फिर भी यह फिल्म आपके सामने नक्सलवाद की एक नई दुनिया सामने लाती है. कहानी वहीं है कि एक आम, गरीब आदमी नक्सल आंदोलन और कानून व्यवस्था के बीच फंस जाता है और दोनों तरफ से बचना ही अब उसकी नियति है.
कहानी अगर आपको चैकाती है, तो इसके कलाकार तो बस आपके दिमाग पर छा ही जाते हैं. असल में, ये आपके दिमाग में हलचल पैदा करते है, बैचेनी पैदा करते हैं, सवाल पैदा करते हैं. सुनील शेट्टी,, यह कलाकार अभी तक भले ही मारधाड़ की बेहूदा फिल्में करता रहा, लेकिन रेड अलर्ट में उसने वह अभिनय किया है, जिसकी मिसाल शायद ही दी जा सके. पिछले देढ़ दषक से ज्यादा के कॅरिअर में सैकड़ों खलनायकों को पीटपीट कर अधमरा कर देने वाले सुनील को इस फिल्म में एक लाचार और विकल्पहीन आदमी की भूमिका निभानी थी. आष्चर्य यह कि हट्टे-कट्टे सुनील शेट्टी ने यह कर दिखाया. जब उसके चेहरे पर हताषा आती है, तो वह असली लगती है. जब वह डरता है, तो वह डर असली लगता है. यकीनन, यह सुनील शेट्टी के कॅरिअर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय है. यही बात समीरा रेड्डी के लिए भी कह सकते हैं. ग्लैमरस भूमिकाओं में खाली भर्ती लगने वाली समीरा एक गंभीर और नानॅ ग्लेमर रोल में बस कहर ढाती है. इस फिल्म के बाद दर्षकों को पता चल जाएगा कि आखिर कोलकाता के दिग्गज फिल्मकार समीरा को अपनी फिल्मो में क्यों लेते रहे हैं. यही बात विनोद खन्ना, भाग्यश्री,, आषीष विद्यार्थी सभी के लिए कही जा सकती है. सभी का अभिनय ऐसा स्वाभाविक है कि बस देखते जाओं.
अब बात निर्देषक अनंत महादेवन की. पिछले कुछ सालों में उन्होंने दर्जनभर बेहूदा मसाला फिल्में बनाई है, लेकिन इसकी भरपाई यह एक फिल्म बनाकर ही कर दी. उनके लिए सलाह यह कि वे आगे भी ऐसी ही फिल्में बनाते रहे, तो फिर कोई शायद ही बाॅलीवुड पर मसाला फिल्मों वाला सिनेमा कहने का आरोप लगाए.
आखिर में- यह फिल्म आपको देखना चाहिए. अगर आप आई हेट लव स्टोरीज जैसी प्यार-गाने, रूठने-मनाने वाली फिल्म देखने में अपना पैसा खर्चते हैं, तो फिर यह फिल्म देखना आपका कर्तव्य है. अगर आप सार्थक और देष की गंभीर समस्याओं को लेकर जरा भी संवेदनषील हैं, तो बस इस फिल्म को देखने आपके नजदीकी सिनेमाघर चले जाइए...

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