Saturday, July 24, 2010

जन्मदिन विशेष ः मनोज कुमार


अबूताबाद, जो कि अब पाकिस्तानी सीमा के अंतर्गत आता है, में 24 जुलाई 1937 को जन्में मनोज कुमार का परिवार आजादी केे बाद राजस्थान आ गया, जब वे सिर्फ दस साल के थे. मनोज कुमार का वास्तविक नाम हरिकिशन गिरी गोस्वामी है. हरिकिशन गोस्वामी मनोज कुमार में कैसे तब्दील हो गया, इसकी भी एक कहानी है. दरअसल, मनोज कुमार को बचपन से दिलीप कुमार की फिल्में बेहद पसंद थी. दिलीप कुमार उनके पसंदीदा अभिनेता थे. जब 1949 में दिलीप कुमार की शबनम पिक्चर रिलीज हुई, तो गोस्वामी ने अपना नाम मनोज कुमार रख लिया. बस यही से मनोज कुमार के फिल्मी कॅरिअर की शुरूआत भी हुई. 1957 में रिलीज हुई फिल्म फेशन में संक्षिप्त भूमिका करने के बाद मनोज कुमार बड़े पर्दे पर पहली बार 1960 में आई कांच की गुड़िया में नायक की भूमिका में दिखाई दिए. लेकिन मनोज कुमार को टिकट खिड़की पर पहली कामयाबी 1962 में रिलीज हुई हरियाली और रास्ता से मिली,, जिसमें वे माला सिन्हा के नायक की भूमिका में नजर आए. इसके बाद 1964 में आई वो कौन थी, और 1965 में रिलीज हुई हिमालय की गोद में जैसी फिल्मों ने भी मनोज कुमार को टिकट खिड़की पर कामयाब अभिनेता बना दिया.
लेकिन मनोज कुमार के कॅरिअर में सबसे अहम मोड़ 1965 में फिल्म शहीद की रिलीज के साथ आया. भारत के महान स्वतंत्रता सैनानी भगतसिंह की जिंदगी पर आधारित इस फिल्म ने सिर्फ टिकट खिड़की पर कामयाबी के झंडे गाड़े, बल्कि इंडस्ट्री में मनोज कुमार को भी एक अलग पहचान दे दी. यह पहचान उन्हें एक ऐसे अभिनेता और निर्देशक-निर्माता के तौर पर मिली,, जो देशभक्ति से जुड़ी फिल्मंंे बनाने में महारत रखता है. इस पुख्ता पहचान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1965 के भारत-पाकिस्तान युध के बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मनोज कुमार के सामने जय जवान, जय किसान थीम पर एक फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा. इसका नतीजा यह रहा कि 1967 में मनोज कुमार ने पहली बार निर्देशन की कमान संभालते हुए उपकार जैसी महान फिल्म बनाई. इस फिल्म में गुलशन बावरा द्वारा लिखा गया गीत मेरे देश की धरती सोना उगले, आज भी आजादी दिवस के मौके पर हर भारतीय की जबान पर होता है. इसके बाद 1970 में आई फिल्म पूरब और पश्चिम के साथ मनोज कुमार ने एक बार फिर देशभक्ति आधारित एक सर्वश्रेष्ठ फिल्म भारतीय सिनेमा को दी.
टिकट खिड़की पर कामयाबी के लिहाज से 1976 मनोज कुमार के कॅरिअर का सबसे यादगार साल रहा, जब उन्होंने रोटी कपड़ा और मकान, सन्यासी और दस नंबरी के तौर पर एक साथ तीन ब्लॉकबस्टर फिल्में दी. इसके बाद 1981 में मनोज कुमार की जिंदगी का सबसे यादगार पल आया, जब उन्होंने अपने गुरू दिलीप कुमार को क्रांति फिल्म में निर्देशित किया. देशभक्ति पर आधारित मनोज कुमार की पिछली फिल्मों की तरह ही क्रांति भी सुपरहीट साबित हुई.
लेकिन इसके बाद मनोज कुमार के कॅरिअर में गिरावट आना शुरू हो गई. बाद के सालों में उनकी सभी फिल्में नाकाम रही, जिसमें क्लर्क जैसी हाई-प्रोफाइल फिल्म भी शामिल है. 1995 में आई मैदान ए जंग बतौर अभिनेता मनोज कुमार की आखिरी फिल्म रही. हालांकि इसके बाद भी अपने बेटे कुणाल गोस्वामी को लेकर मनोज कुमार ने 1999 में जय हिंद नामक देशभक्ति पर आधारित एक और फिल्म बनाइ्र्र ,लेकिन तब तक उनका जादू ढल चुका था. नतीजा यह रहा कि यह फिल्म टिकट खिड़की पर औंधे मूंह गिर गई.
वर्तमान में, अपनी जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर मनोज कुमार फिल्मी दुनिया की चकाचैंध से दूर हो चुके हैं. लेकिन उनके प्रशंसकों को उनकी अदाएं और फिल्में आज भी लुभाती है. इंडस्ट्री के इतिहास में भी मनोज कुमार को एक ऐसे हरफनमौला के तौर पर जाना जाएगा, जिन्होंने बॉलीवुड को क्रांति, रोटी कपड़ा और मकान और शहीद जैसी महान फिल्में दी.

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