Saturday, July 3, 2010

महान नहीं है ‘खान’


पिछले दिनों बाॅलीवुड के फिल्मकारों के बीच इस बात को लेकर बहसबाजी का दौर शुरू हो गया कि आखिर इस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म कौन सी है. इस मामलें में सबसे पहले अपनी दावेदारी साजिद खान ने प्रस्तुत की और कह दिया कि चूंकि उनकी फिल्म हाउसफुल इस साल टिकट खिड़की पर सबसे ज्यादा कमाई की है, इसलिए वहीं सबसे कामयाब है. लेकिन साजिद खान की इस बात का करण जौहर ने सिरे से विरोध किया और यह बयान दे डाला कि चूंकि उनकी फिल्म माई नेम इज खान आतंकवाद जैसे वैष्विक मुद्दें पर आधारित थी, इसलिए वहीं इस साल की सबसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. यही नहीं,, जौहर ने तो यहां तक कह दिया कि उनकी फिल्म भारतीय सिनेमा इतिहास की सबसे महान फिल्मों में शुमार होनी चाहिए, क्योंकि यह एक गंभीर विषय पर बनी उम्दा फिल्म है.
ऐसे में, बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या सही मायनों में ‘माई नेम इज खान’ बाॅलीवुड की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक फिल्म है। बाॅलीवुड को कई महान फिल्में देने वाले गुलजार साहब की वह बात, जो उन्होंने तीन साल पहले कहीं थी, की बात महान फिल्मों के संदर्भ में हमेशा सारगर्भित रहेगी. अपनी फिल्मों का जिक्र छिड़ने पर गुलजार साहब ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा था कि मेरी फिल्में महान है, यह बात सही है, लेकिन मुझे इस बात की संतुष्टि है कि मेरी फिल्म ने उस दर्षकों को भी उसके पैसे की पूरी कीमत वसुल कराई, जो उसने सिनेमाघर में मेरीे फिल्म देखने में खर्च किया। गुलजार साहब का कहना यह था कि उनकी फिल्में संदेषपरक तो थी ही, साथ ही मनोरंजक भी थी। आखिर में उन्होंने यही कहा था कि किसी भी फिल्म को सबसे पहले मनोरंजक होना चाहिए, उसके बाद संदेषपरक।
शाहरूख की ‘माई नेम इज खान’ को इसी कसौटी पर तौले तो साफ हो जाता है कि ‘खान’ देष-दुनिया में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली भारतीय फिल्म भले ही बन जाए, लेकिन यह सबसे महान भारतीय फिल्म नहीं बन सकती। यह ‘थ्री इडियट, शोले, दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे, गजनी के बराबर महान नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि शाहरूख की ‘माई नेम इज खान’ तमाम खूबियों के बावजूद एक मनोरंजक फिल्म नहीं है। यह दर्शकों को उस तरह हंसाती, या अपने साथ नहीं जोड़ती, जिस तरह थ्री इडियट और शोले जोड़ती है। फिल्म एक ऐसे मुसलमान रिजवान की कहानी कहती है, जो खुद को आतंकवादी बिरादरी से अलग साबित करने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलने की असंभव कोषिष करता है और उसमें कामयाब भी होता है। लेकिन यकीन कीजिए उसकी यह कोषिष बिल्कुल भी मनोरंजक नहीं है। बाॅलीवुड के प्रख्यात आलोचक कोमल नाहटा ने मुझसे सही कहा कि यह फिल्म शुरू से आखिर तक एक ही ढर्रे पर चलती है। न तो इसमें शाहरूख और काजोल के बीच रोमांस का तड़का अच्छे से लगा है और न ही हंसाने वाले दृष्य बहुत ज्यादा हैं। इसके साथ ही फिल्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि एक वक्त के बाद रिजवान का अमेरिकी राष्ट्रपति तक पहुंचने का सफर दर्षकों को बोझिल लगने लगता है। इसी के चलते दर्षक आखिर कुछ रीलों में यह दुआ करता नजर आता है कि शाहरूख जल्द से जल्द राष्ट्रपति से मिल लें, तो वह सिनेमाघर से बाहर निकले।
जाहिर है, ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि फिर शाहरूख की ‘माई नेम इज खान’ इतनी कमाई करने में कामयाब कैसे हुई? आखिर कैसे इसने भारत में ही नहीं, पाकिस्तान, अमेरिका और सउदी अरब, सभी जगह कामयाबी के नए कीर्तिमान बना डाले? तो इसका सबसे उपयुक्त जवाब यही होगा कि फिल्म की कामयाबी में उसके साथ जुड़े विवादों ने खास भूमिका निभाई है। याद कीजिए उन दिनों को, जब माई नेम इज खान की 12 फरवरी को रिलीज से ठीक पहले षिवसेना और शाहरूख के बीच विवाद किस तरह सुर्खियां बटोर रहा था। शाहरूख ने आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के बारे में कुछ बोला और बाल ठाकरे ने इसे देष का सबसे चर्चित मुद्दा बना डाला। चूंकि शाहरूख की फिल्म रिलीज होने वाली थी, इसलिए उन्होंने भी इस विवाद को खूब हवा दी। याद कीजिए, किस तरह शाहरूख ने बाल ठाकरे से माफी मांगने से मना कर दिया, दुबई से मुंबई आए और वापस विदेष चले गए। फिर रिलीज वाली तारीख, यानी 12 फरवरी को वे ट्वीटर पर जमंे रहे और वहां हर दूसरे मिनट फिल्म को समर्थन मिलने की बात पर भावुक संदेष भेजते रहे। उन संदेषों को चूंकि भारतीय मीडिया ने भी दिखाया, इसलिए हर हिंदुस्तानी को पता चल गया कि उनका लाडला सितारा बाल ठिकारे के अन्याय के खिलाफ लड़ रहा है. भारतीय जनता वैसे भी जल्दी भावुक हो जाती है, इसलिए वह भी समर्थन दिखाने के लिए सिनेमाघर पहुंच गई। तो, इस तरह फिल्म ने रिकाॅर्डतोड़ कमाई की और भारतीय सिनेमा की सबसे कामयाब फिल्म बन गई।
हालांकि फिल्म मनोरंजक नहीं है, इसका पता उसके दूसरे सप्ताह में कमाई के आंकड़ों से भी लग जाता है। फिल्म की दूसरे सप्ताह की कमाई में 60 फीसदी तक की गिरावट देखी गई. जाहिर है, वे लोग जो शाहरूख-षिवसेना के विवाद के चलते फिल्म देखने चले गए थे, उसे दोबारा देखने नहीं गए. गुलजार साहब के शब्दों मेंः महान फिल्म वहीं होती है, जिसे दर्षक बार-बार देखने जाए। गजनी और थ्री इडियट को लोगों ने कई बार सिनेमाघर जाकर देखा। लेकिन शाहरूख की ‘माई नेम इज खान’ से लोगों ने पहली बार में ही इतिश्री कर ली। इसीलिए मैं कहता हूं कि ‘माई नेम इज खान’ सबसे कामयाब फिल्म भले ही बन गई हो, लेकिन यह बाॅलीवुड की सबसे महान फिल्म नहीं है। इसे सबसे महान फिल्म कहना दूसरी महान फिल्मों की तौहीन होगी।
जहां तक साजिद खान की हाउसफुल का सवाल है, तो उनके दावे पर तो तवज्जो तक नहीं दी जानी चाहिए. साजिद खान एक ऐसे फिल्मकार है, जो फिल्म की कहानी लिखने से पहले आधा दर्जन हाॅलीवुड फिल्मों की सीडी अपने घर में देखते है, फिर सभी में से एक-दो दृष्य चुराकर कहानी लिख देते हैं. साजिद खान के बारे में इससे ज्यादा कहने की जरूरत भी नहीं है.

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