Thursday, August 19, 2010

मुगले-आजम के 50 बरस



दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग के तौर पर स्थापित बॉलीवुड में हर साल तीन सौ से भी ज्यादा फिल्में बनती है. इनमें से ज्यादातर फिल्में बड़े सितारों, स्थापित निर्माता-निर्देशकों से सजी होती है. बावजूद इसके साल में तीन सौ से ज्यादा फिल्में बनाने वाले बॉलीवुड की अस्सी फीसदी से ज्यादा फिल्में टिकट खिड़की पर नाकाम ही साबित होती है. इतना ही नहीं, मल्टीप्लेक्स के इस दौर में बड़ी से बड़ी कामयाब फिल्में भी चार-पांच हप्तों से ज्यादा नहीं चल पाती है. ऐसे में अगर कोई फिल्म पचास साल बाद भी दर्शकों की यादों में बनी रहे, तो फिर उसे भारतीय सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ पिफल्म मानने से परहेज नहीं होना चाहिए.
ऐसी ही एक सदाबहार फिल्म मुगले-आजम ने 5 अगस्त 2010 को अपने पचास साल पूरे कर लिए. निर्देशक के. आसिफ की इस महान फिल्म के पचास साल पूरे करना कोई मामूली बात नहीं है, बल्कि यह भारतीय सिनेमा के गौरमयमी इतिहास में एक और मिल का पत्थर है. 5 अगस्त 1960 को देशभर के 150 सिनेमाघरों में रिलीज हुई मुगले-आजम अपने गीत-संगीत, भव्यता, यादगार अभिनय के चलते युवा पीढ़ी के दर्शकों को भी उसी तरह आकर्षित करती है, जिस तरह वह भारतीय सिनेमा को करीब से देखने वाली बुजुर्ग पीढ़ी के दिलों में बसी हुई है. ऐसे में, मुगले-आजम की स्वर्ण जयंती के इस मौके पर इस महान फिल्म से जुड़ी कई अनछुई बातों को याद करना लाजिमी ही हो जाता है.
तो, मुगले-आजम की असल कहानी 1944 से शुरू होती है, जब निर्देशक के. आसिफ ने पहली बार मुगल शहजादे सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी को फिल्मी पर्दे पर उकेरने का ख्वाब संजोया था. तब के. आसिपफ की इस फिल्म में महालक्ष्मी स्टूडियों के मालिक शिराज अली पैसा लगाने वाले थे. के. आसिफ ने बादशाह अकबर, शहजादे सलीम और अनारकली की भूमिकाओं के लिए क्रमशः चंद्रमोहन, सप्रु और नरगिस का चयन किया था. लेकिन आजादी की जद्दोजहद और चंद्रमोहन की मौत के चलते यह योजना अधर में ही रह गई. आजादी के बाद के. आसिफ ने अपने ख्वाब को पूरा करने का एक और प्रयास किया, लेकिन तब तक भारत विभाजन के बाद शिराज अली पाकिस्तान में बस गए थे. लेकिन के. आसिफ तो किसी भी कीमत पर सलीम-अनारकली की प्रेम कहानी को बड़े पर्दे पर लाने के लिए दृढ़संकल्पित थे. नतीजतन, उन्होंने नए सिरे से निर्माता की तलाश शुरू कर दी. चंद महीनों के इंतजार के बाद देश के ख्यात उद्योपगति शापुरजी पलोनजी के रूप में कें.आसिफ को वह शख्स मिल ही गया, जो उनके ख्वाब को पूरा करने जा रहा था. चूंकि तब तक चंद्रमोहन की मौत हो चुकी थी, इसलिए के. आसिफ ने नए सिरे से कलाकारों की खोज शुरू की. आखिर में बादशाह अकबर, शहजादे सलीम और अनारकली की भूमिकाओं के लिए क्रमशः पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कूमार और मध्ुाबाला को लिया गया. यहीं से शुरू हुई मुगले-आजम के बनने की कहानी. के. आसिफ अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म को इस तरह फिल्माने का मन बना चुके थे, जैसा इंडस्ट्री में पहले कभी नहीं हुआ था. सो, मुगले-आजम को भारतीय सिनेमा की सबसे भव्य फिल्म बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. फिल्म में लड़ाई के दृश्यों में मुगल जमाने की वास्तविकता दिखाने के लिए 2000 ऊंटों, 4000 घोड़ों और 8000 सैनिकों का इंतजाम किया गया. कलाकारों के कपड़ों के लिए दिल्ली से दर्जी बुलाए गए, एंब्रायडरी के लिए सूरत से कारीगर बुलाए गए, आभूषणों के लिए जयपूर से कारीगरों का इंतजाम किया गया. इतना ही नहीं, लड़ाई के दृश्यों को असल बनाने के लिए भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय से विशेष इजाजत लेकर सेना के जवानों को भी बुलाया गया. इसके लिए जयपूर रेजीमेंट के जवानों ने फिल्म के लड़ाई के दृश्यों में हिस्सा लिया. के. आसिपफ ने अपनी इस महत्वाकांक्षी फिल्म में हर विभाग में दिल खोलकर खर्चा किया. फिल्म में तानसेन के दो गीतों को गाने के लिए विशेषतौर पर शास्त्राीय गायक बड़े गुलाम अली खाम साहब से अनुरोध किया. लेकिन दिक्कत यह थी कि महान खाम साहब फिल्मों को कतई पसंद नहीं करते थे. निर्माता शापुरजी और के. आसिफ की हर बात उन्होंने नकार दी. टालने के लिए कह दिया गया कि खाम साहब गाने के लिए 25 हजार रूपए लेंगे. लेकिन के. आसिफ भी भला कहां पीछे हटने वाले थे. आखिर में दो गीतों शुभ दिन आयो और प्रेम जोगन बनके के एवज में खाम साहब को 25 हजार रूपए ही दिए गए, जबकि उस जमाने में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी भी एक गीत का पारिश्रमिक 300 सौ रूपए लेते थे. इस तरह के. आसिफ ने ध्माकेदार अंदाज में फिल्म की शूटिंग शुरू की. लेकिन तभी 1953 में भारतीय सिनेमा में एक ऐतिहासिक घटना घट गई. इस साल झांसी की रानी नामक फिल्म रिलीज हुई, जो भारतीय सिनेमा की पहली रंगीन फिल्म थी. इस फिल्म ने के. आसिफ की महत्वाकांक्षाओं को और ज्यादा बढ़ा दिया. अब के. आसिफ ने भी ठान लिया कि वो भी अपनी पिक्चर को रंगीन बनाएंगे. लेकिन तब तक निर्माता शापुरजी और वितरकों के सब्र का बांध चुका था. उन्होंने के. आसिफ को निर्देश दे दिए कि अब फिल्म को बिना देर किए पूरा कर दिया जाए. आखिर में समझौता यह हुआ कि कुछ रीलें रंगीन में फिल्माई जाए. नतीजा यह रहा कि कूल तीन रीलें रंगीन फिल्माई गई, जिसमें प्यार किया तो डरना क्या गाना भी शामिल था. प्यार किया तो डरना क्या गाने को विख्यात शीशा महल में फिल्माया गया. जिस पर 10 लाख रूपए का खर्च आया. इस तरह जब 5 अगस्त 1960 को फिल्म रिलीज हुई तो उसमें 15 फीसदी हिस्सा रंगीन था और 85 फीसदी हिस्सा श्वेत-श्यााम था. पूरी फिल्म 17 लाख रूपए में बनी, जबकि तब फिल्में ज्यादा से ज्यादा 2.3 लाख रूपए में बन जाया करती थी.
फिल्म रिलीज हुई, तो दर्शकों ने भी के. आसिफ की मेहनत से बनाई गई मुगले-आजम को सिर आंखों पर बिठा लिया. देश के 150 सिनेमाघरों में मुगले-आजम रिलीज हुई और 100 सप्ताह तक चलने का कीर्तिमान बनाया. 1970 में आई शोले से पहले तक मुगले-आजम ही बॉलीवुड की सबसे कामयाब फिल्म थी और आज भी यह भारतीय सिनेमा की दूसरी सबसे कामयाब फिल्म है.
2004 में मुगले-आजम के साथ एक और उपलब्ध् िजुड़ गई, जब फिल्म के निर्माताओं ने इसे पूरी तरह रंगीन संस्करण में रिलीज किया. इसके लिए एक साल की मेहनत की गई, दृश्यों को फिर से रंगीन किया गया. 2004 में दीवाली के मौके पर मुगले-आजम यश चैपड़ा की वीर जारा, रामगोपाल वर्मा की नाच और अब्बास-मस्तान की एतराज जैसी बड़ी फिल्मों के साथ रिलीज हुई. बावजूद इसके मुगले-आजम का रंगीन संस्करण भी दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब रहा. फिल्म इस बार भी 25 सप्ताह तक चली. भारतीय सिनेमा ही नहीं, विश्व सिनेमा में भी यह पहला मौका था, जब किसी फिल्म को रंगीन करके दोबारा रिलीज किया गया.
वहीं, मुगले-आजम अब पचास बरस की हो गई है. लेकिन उसकी यादें अभी भी करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिलों में बसी हुई है. महान फिल्मों की यही पहचान होती है कि वे कभी भी अप्रासंगिक नहीं होती. और मुगले-आजम इस कसौटी पर भी खरी उतरती है.

1 comment:

  1. कमाल की फिल्म पर बेहतरीन जानकारी.

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