Friday, August 20, 2010

फिल्म समीक्षा ः लफंगे परींदे



मुंबई में टपोरीे बोली स्थानीय तौर पर बोली जाती है, लेकिन देश के कोने-कोने से आए संभा्रंत परिवार के निर्देशकों को भी इस बोलीे ने खूब आकर्षित किया है. राम-लखन, किशन-कन्हैया, तेजाब जैसी फिल्मों में आमिर खान, मुन्नाभाई सीरीज की फिल्मों में संजय दत्त और रामगोपाल वर्मा की क्लासिक रंगीला और विक्रम भट्ट की गुलाम में आमिर खान ने इस बोली को इतने प्रभावी अंदाज में बोला था कि दर्शक आज भी इन फिल्मों की मिसाल दिया करते हैं. कॅरिअर में परीणीता और लागा चुनरी में दाग जैसी पारिवारिक फिल्में बनाने वाले प्रदीप सरकार यशराज कैंप के लिए तीसरी फिल्म लेकर आए हैं लपफंगे परींदे, जिसमें भी हीरों मुंबईया टपोरी बोलता नजर आता है. लेकिन अफसोस कि फिल्म की खूबी बस इसी बात पर खत्म हो जाती है. फिल्म के प्रोमो देकर उम्मीद बंधी थी कि यह दो लोगों की जंगली प्रेम कहानी है, लेकिन फिल्म देखने जाने पर पता चलता है कि इसमें सत्तर-अस्सी के दशक के फॉर्मूलों को ही अपनाया गया है. हीरों हिंसक और आवारा है, हीरोईन अंधी है, लेकिन उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं है. दोनों एक साथ होते हैं तो मिशन बन जाता है. लेकिन साथ हुए हैं तो इसकी कीमत तो चुकानी पड़ेगी. नील-नीतिन मुकेश और दीपिका पादुकोण भी चुकाते हैं यह कीमत. लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसा हिंदी फिल्मों में हम हजार बार देख चुके हैं.
एक और बात नायक नील नीतिन मुकेश कहीं से भी टपोरी नहीं लगते. असल में उनका व्यक्तित्व इस तरह का है ही नहीं कि वे इस तरह की भूमिकाओं में जम पाएं. उनके चेहरे से ही रईसी टपकती है, सो वे लाख कोशिश करके भी टपोरी की भूमिका को अच्छे से नहीं निभा पाते हैं. जहां तक दीपिका का सवाल है, तो किरदार तो उन्होंने दृष्टिहीन नायिका का निभाया है, लेकिन कपड़े वे इस कदर फेशनेबल पहनती है कि आजकल मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों की आंखों वाली युवा लड़कियां भी इस तरह के कपड़े शोरूम से चुन न पाएं. कूल मिलाकर लफंगे परींदे किसी भी एंगल से प्रभावित नहीं कर पाती है.

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