Friday, August 6, 2010

फिल्म समीक्षा ः हंसती-गाती आयशा


बॉलीवुड में आजकल एक नया टेªंड निकला है ः प्रेम कहानी पर पिक्चर बनाओं, तो ऐसी बनाओं जिसमें कोई रोना-धोना न हो. बस प्यार, मस्ती, मजाक और बढ़िया संगीत हो और पिक्चर हसंते-गाते ही खतम हो जाए. इस हप्ते रिलीज हुई आयशा बिल्कुल ऐसी ही फिल्म है. अनिल कपूर के प्रोडक्शन में बनी इस फिल्म के नायक-नायिका, निर्माता-निर्देशिका और प्रोडक्शन डिजाइनर सभी हमउम्र के ही हैं. यानी कि सभी युवा हैं. और यह बात इस पिक्चर को देखते वक्त पता भी चल जाती है. फिल्म की कहानी एक अंग्रेजी उपन्यास से ली गई है. एमा नामक यह उपन्यास लिखा तो अठारवीं सदी में गया था, लेकिन फिल्म की निर्देशिका और लेखिका ने उसे आज के जमाने से क्या खूब ढाला है. पूरी पिक्चर आज के जमाने की लगती है या कह लें कि आज के जमाने से भी आगे की लगती है. कहानी इस पिक्चर की एकदम सीधी-साधी है. नायिका हर किसी के मामले में टांग अड़ाती है और नायक चाहता है कि नायक सिर्फ अपने काम से काम रखें. नतीजा यह होता है कि दोनों के बीच ढेर सारी नोकझोंक, लड़ाई-झगड़ा. लेकिन फिर नायिका को नायक पर प्यार आने लगता है. आगे क्या होता है आप खूद ही सिनेमाघर में जाकर देखे तो ज्यादा अच्छा.
बात करते हैं निर्देशिका की. इस पिक्चर की निर्देशिका राजश्री ओझा को रोना-धोना पसंद नहीं, यह बात तो तय है. पूरी फिल्म एकदम हल्के-फुल्के दृश्यों के साथ चलती है. हीरो-हिरोईन भी खूब बला के छांटे हैं उन्होंने. सोनम इस फिल्म की असल हीरो है और उन्होंने ऐसा काम भी कर दिखाया है. पापा अनिल से अभिनय के सीखे गुर ऐसे दिखाए हैं इस पिक्चर में कि अनिल को भी गर्व होगा. हीरो के तौर पर अभय देओल भी खूब पसंद आते हैं. नायिका प्रधान फिल्म में भी उन्होंने खूब अच्छा अभिनय किया है.
यह फिल्म एक सुखद अहसास दे जाती है. कोई रोना-धोना नहीं, बस मस्ती, मजाक और गाना-बजाना. इससे याद आया इस पिक्चर के गाने भी बड़े उम्दा है. गाने जब-जब आते हैं तो नाचने का मन हो जाता है बस. यह फिल्म कूरकूरे नमकीन की तरह है. स्वाद लेकर देखते ही जाओं...बढ़िया....और खासी मनोरंजक कूल मिलाकर.

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