Wednesday, June 30, 2010

मैंने पहली फिल्म के लिए ही लावारिस बच्चों का विषय चुनाः इरफान कमाल




मुंबइयां इंडस्ट्री के फार्मूलों और तौर-तरीकों को उन्होंने बेहद करीब से देखा है. इकतालीस वर्षीय इरफान कमाल के पिता अपने जमाने के शीर्ष कोरियोग्राफर थे, जिन्होंने मनमोहन देसाई और बी. सुभाष जैसे फार्मूला फिल्मों के दिग्गज फिल्मकारों के साथ काम किया. बावजूद इसके उनकी पहली फिल्म यथार्थवादी कहानी कहती है. उनकी पहली फिल्म थैंक्स मां 5 मार्च को देषभर में रिलीज हुई . प्रस्तुत है इंडस्ट्री में ताजगीभरा पदार्पण करने वाले इरफान कमाल से पुष्पेंद्र आल्बे की बातचीत के संपादित अंश.

कुछ अपने बारे में बताएं ?

मेरा जन्म मुंबई में हुआ. मेरे पिताजी अपने जमाने के प्रख्यात कोरियाग्राफर थे, जिन्होंने अमर अकबर एंथोनी, कुली और डिस्को डांसर जैसी सुपरहिट फिल्मों में कोरियोग्राफी की. इसी के चलते फिल्म इंडस्ट्री के साथ मेरा रिश्ता बचपन में ही मजबूत हो गया था. जाहिर है, स्वाभाविक तौर पर मुझे इसे करियर के तौर पर अपनाना ही था.

फिर भी बाॅलीवुड में आपके शुरुआती साल बतौर अभिनेता के रहे ?

असल में, इसके पीछे इंडस्ट्री में दाखिल होने की मेरी छटपटाहट थी. मैं किसी भी कीमत पर फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा बनना चाहता था. इसी के मद्देनजर मैंने अंगारे, अपने दम पर जैसी फिल्मों में छोटी भूमिकाएं कीं. इन फिल्मों से बतौर अभिनेता तो मुझे कोई खास फायदा नहीं हुआ, लेकिन इस काम ने मुझे आत्मविश्वास दिया. मुझमें इस बात का यकीन आया कि मैं भी इंडस्ट्री में अपनी छाप छोड़ सकता हूं.

अभिनेता से निर्देशक बनने तक का सफर आसान तो नहीं रहा होगा ?

बेशक. मुझे भी संघर्ष के लंबे दौर से गुजरना पड़ा. लेकिन इस दौरान मैंने कभी भी हौसला नहीं खोया. बतौर अभिनेता कुछेक फिल्मों में नजर आने के बाद मुझे अंदाजा हो गया था कि मेरी मंजिल अभिनेता बनना नहीं, बल्कि निर्देशक बनना है.

तो फिर आपने यह लक्ष्य कैसे हासिल किया?

मैं क्वांटम फिल्म कंपनी के साथ जुड़ा. उनके साथ मिलकर मैंने 2007 में पहली फिल्म बनाई. फिल्म का नाम था- लेडी गोडीवा: बेक इन द सीड्स. इसके साथ ही एक अन्य फिल्म में क्रिएटिव डायरेक्टर की भूमिका भी निभाई. और अब बतौर निर्देशक मेरी पहली फिल्म थैंक्स मां रिलीज होने जा रही है.

पहली फिल्म के लिए ही आपने जोखिमभरा विषय चुना. नाकामयाबी का डर नहीं लगा.

मैं काम करने में यकीन करता हूं, नतीजे की उम्मीद नहीं करता. जब मुझे लावारिस बच्चों की कहानी पसंद आई, तो मैंने तय कर लिया था कि यही मेरी पहली फिल्म होगी. बेशक फिल्म में इंडस्ट्री के बड़े सितारे नहीं है, लेकिन एक दिल को छू जाने वाली कहानी है. और मेरा हमेशा से मानना रहा है कि एक अच्छी कहानी को दर्शक हमेशा पसंद करते हैं.

थैंक्स मां की कहानी के बारे में कुछ बताएं ?

दरअसल, इस फिल्म का विचार मेरे दिमाग में तब आया, जब मैं एक दिन अपने घर से आॅफिस की ओर आ रहा था. रास्ते में ट्रॅाफिक के चलते एक जगह कार रोकी, तो सड़क के किनारे मुझे लावारिस बच्चे कचरा बीनते नजर आए.ं बस यहीं से मेरी फिल्म की कहानी मिल गई. इसके बाद मैंनें इस कहानी को क्वांटम फिल्म्स के अपने साथियों को बताया और इस तरह फिल्म अस्तित्व में आई.

बाॅलीवुड में आजकल मसाला फिल्मों का दौर है, लेकिन आपने पहली ही फिल्म में संवेदनषील और लीक से हटकर कहानी कहने का जोखिम उठाया ?

मैं मसाला और कलात्मक फिल्मों के इस अंतर को नहीं मानता. मेरे विचार से कोई भी कहानी कलात्मक या मसाला नहीं होती, बस उसे पर्दे पर पेष उस तरह से किया जाता है. सभी कहानियां दिलचस्प होती है. यह पूरी तरह से निर्देषक के ऊपर होता है कि वह उस कहानी को किस तरह प्रस्तुत करता है. इसलिए पहली फिल्म के लिए इस तरह का विषय चुनते हुए मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. मेरा मानना है कि संवेदनषील और अच्छी कहानी वाली फिल्मों को दर्षक हमेषा पसंद करते हैं. और फिर, लावारिस बच्चों की समस्या हमारे देष की एक प्रमुख समस्या है.

इस बारे में जरा और विस्तार से बताईए ?

असल में, लावारिस बच्चों की समस्या हमारे देष की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है. यह अलग बात है कि मीडिया इस समस्या की ओर कोई ध्यान नहीं देता. न ही सरकार इस समस्या को सुलझाने के लिए कोई गंभीर प्रयास करती है. जबकि हकीकत यह है कि रोजाना 270 से भी ज्यादा मासूम बच्चें लावारिस जिंदगी गुजारने के लिए छोड़ दिए जाते हैं. यह आंकड़ा मुझे अपनी कहानी के लिए कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ वक्त बिताने के दौरान पता चला. दुखद बात यह है कि इतनी बड़ी तादाद में बच्चें सिर्फ गरीबी के चलते ही नहीं छोड़े जाते, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर बेईज्जती से बचने के लिए भी माएं इस तरह के कदम उठाने को मजबूर हो जाती है. इसी के चलते यह एक जटिल समस्या बन गई है.


तो फिर आपकी फिल्म की कहानी क्या हैं?

यह एक ऐसे बारह वर्षीय बच्चें की कहानी है, जो मुंबई के फुटपाथ पर अपने दोस्तों के साथ लावारिस जिंदगी जीता है. एक दिन उसे दो दिन की मासूम बच्ची लावारिस अवस्था में मिलती है. इसके बाद वह बच्चा अपने दोस्तों के साथ मिलकर न सिर्फ उसे संभालने का जिम्मा उठाता है, बल्कि उसे उसकी मां तक पहुंचाने की कसम भी खाता है. फिल्म के आखिर में वह अपने मकसद में कामयाब होता है, लेकिन इस बीच उसे दुनिया की हकीकत पता चलती है. नतीजतन, मां को लेकर उस लावारिस बच्चें ने अपने मन-मंदिर में जो छवि बना रखी थी, वह पूरी तरह चकनाचूर हो जाती है.

फिल्म के कलाकारों के बारे में बताइए?

मेरे भतीजे शेम्स पटेल ने फिल्म के बारह वर्षीय नायक की भूमिका निभाई है. इसके अलावा, बाकी सभी बाल-कलाकार हमनें मुंबई की झुग्गी-बस्तियों से ही लिए हैं. इसके लिए कईं महीनें तक तीन सौ से भी ज्यादा बच्चों का टेस्ट लिया गया, जिसमें से आखिर में चार बच्चें चुने. शेम्स पटेल को फिल्म में बेहतरीन भूमिका के लिए हाल ही में देष के सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो कि हमारे लिए बेहद गर्व की बात है. इससे हमारा उत्साह कईं गुना बढ़ गया है.

फिल्म अंतरराष्ट्रीय महोत्सवों में भी खूब तारीेंफें बटोर चुकी हैं.

हां. यह मेरे लिए गर्व की बात है कि मेरी फिल्म ने भारतीय सिनेमा को विश्व स्तर पर तारीपफें दिलाईं. हमारी फिल्म को एडिनबर्ग और कान्स महोत्सव में खूब पसंद किया गया. अब भारतीय दर्शकों की बारी है. मुझे उम्मीद है कि वे भी मेरी फिल्म की संवेदनशनील कहानी को पसंद करेंगे. देष में भी हमारी फिल्म की तुलना स्लमडाग मिलियनेयर से की जा रही है.

थैंक्स मां के बाद अगली फिल्म?

मेरी अगली फिल्म एक प्रेम कहानी होगी. वह मसाला फिल्म तो होगी, लेकिन फिर भी मुंबइयां फिल्मों से हटकर होगी.


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