Tuesday, June 29, 2010

फिल्मों का बुरा हश्र


पिछले सप्ताह देष के सिनेमाघरों में रिलीज हुई दो फिल्मों पाठषाला और फूंक-2 बाॅलीवुड में एक नए चलन की ओर ईषारा करती है. यह ईषारा है इन दिनों रिलीज हो रहीे फिल्मों की कहानियों और पर्दे पर उनके फिल्मांकन के सिलसिले में. गौर कीजिए, पाठषाला और फंूक-2 दोनों ही फिल्मों की कहानी बेहद उम्दा थी. बावजूद इसके दोनों ही फिल्में टिकट खिड़की पर औंध्ेा मूंह गिरी. न सिर्फ दोनों फिल्में दर्षकों का दिल जीतने में नाकामयाब रही, बल्कि आलोचकों ने भी दोनों फिल्मों को सिरे से नकार दिया.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर अच्छी कहानी के बावजूद दोनों फिल्मों का बुरा हश्र क्यों हुआ ? इसका जवाब यही है कि बेषक दोनों फिल्मों की कहानी अच्छी थी, लेकिन दोनों ही निर्देषक इन अच्छी कहानियों को सही ढंग से पर्दे पर उकेर नहीं पाएं. मतलब यह कि कहानी का ‘आइडिया’ अच्छा था, लेकिन जब इसे दृष्यों में बांटने की नोबत आई, तो निर्देषक और उनके कहानीकार साथी इसमें नाकाम रहे. इसका नतीजा यह रहा कि अच्छी-भली कहानी होने के बावजूद दोनों ही फिल्में न तो दर्षकों का दिल जीत पाई और न ही आलोचकों की कलम को.
और ऐसा भी नहीं है कि यह पहली बार हुआ है. हैरानी इसलिए होतीे है कि बाॅलीवुड में पिछले कईं सालों से यही हो रहा है. बेषक हमारी इंडस्ट्री में बीतें कुछ सालों में नए प्रतिभावान निर्देषक और कहानीकार आएं है, जो लीक से हटकर काम करने में भरोसा करते हैं. अनुराग कष्यप, दीबाकर बनर्जी, शषांत शाह जैसे चिर-परिचित नामों के साथ ही प्रत्येक साल दर्जनों ऐसे नए निर्देषक और कहानीकार अपनी फिल्मों को लेकर भारतीय दर्षकों के सामने आते हैं, जो एक नई कहानी, नया विचार परोसते हैं. लेकिन दुर्भाग्य की बात यही है कि इसके बावजूद उनकी फिल्में औंधे मूंह गिर जाती है. पिछले एक-दो साल के दौरान रिलीज हुई फिल्मों पर नजर डालें, तो लक बाय चांस, सिकंदर, कुर्बान, वेल डन अब्बा, तुम मिले, दिल्ली-6, कार्तिक कालिंग कार्तिक ऐसी ही कुछ फिल्में है, जिनकी कहानी का मूल ‘आइडिया’ बेहद उम्दा था, बावजूद इसके ये फिल्में दर्षकों और आलोचकों दोनों के लिए ही बोझिल अनुभव ही साबित हुई. पहले बात करते हैं, सिकंदर फिल्म की. जम्मू-कष्मीर के आतंकी माहौल के बीच एक लड़के की दास्तां दिल झकझोर देने वाली साबित हो सकती थी, लेकिन नए निर्देषक पियुष झा ने कहानी में राजनीतिक कोण डालकर पूरी कहानी का कबाड़ा कर दिया. नतीजतन, वह एक संवेदनषील फिल्म बनने के बजाए राजनीतिक भाषणबाजी वाली फिल्म बनकर रह गई. इसी तरह सैफ अली खान और करीना कपूर अभिनीत कुर्बान मुस्लिम आतंकवाद की थीम वाली अच्छी कहानी थी, लेकिन निर्देषक ने इसे इस कदर उबाउ बना दिया कि फिल्म में मनोरंजक दृष्यों के लिए ही दर्षक तरस गए. वहीं, इमरान हाषमी और सोहा अली खान अभिनीत फिल्म तुम मिलें मुंबई की बारिष के बीच फंसे एक प्रेमी जोड़े की उम्दा कहानी थी, लेकिन फिल्म में निर्देषक मोहित सूरी ने इतने प्लेषबेक डाल दिए कि फिल्म अपने मूल भाव से भटक गई.
बात बिल्कुल साफ है, कि अच्छी कहानियों के बावजूद हमारे फिल्मकार अच्छी फिल्में नहीं बना पा रहे हैं. नतीजा यह कि बाॅलीवुड अभी भी साल में 300 से ज्यादा फिल्में बनाता है और अभी भी इसमें से नब्बे फीसदी फिल्में बूरी तरह से नाकाम साबित होती है. जाहिर है, इस खराब रिकाॅर्ड को सुधारने के लिए बाॅलीवुड को अभी भी अपनी कार्यप्रणाली में भरपुर सुधार करने की गुंजाइष है.

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