Wednesday, June 30, 2010

मैंने पहली फिल्म के लिए ही लावारिस बच्चों का विषय चुनाः इरफान कमाल




मुंबइयां इंडस्ट्री के फार्मूलों और तौर-तरीकों को उन्होंने बेहद करीब से देखा है. इकतालीस वर्षीय इरफान कमाल के पिता अपने जमाने के शीर्ष कोरियोग्राफर थे, जिन्होंने मनमोहन देसाई और बी. सुभाष जैसे फार्मूला फिल्मों के दिग्गज फिल्मकारों के साथ काम किया. बावजूद इसके उनकी पहली फिल्म यथार्थवादी कहानी कहती है. उनकी पहली फिल्म थैंक्स मां 5 मार्च को देषभर में रिलीज हुई . प्रस्तुत है इंडस्ट्री में ताजगीभरा पदार्पण करने वाले इरफान कमाल से पुष्पेंद्र आल्बे की बातचीत के संपादित अंश.

कुछ अपने बारे में बताएं ?

मेरा जन्म मुंबई में हुआ. मेरे पिताजी अपने जमाने के प्रख्यात कोरियाग्राफर थे, जिन्होंने अमर अकबर एंथोनी, कुली और डिस्को डांसर जैसी सुपरहिट फिल्मों में कोरियोग्राफी की. इसी के चलते फिल्म इंडस्ट्री के साथ मेरा रिश्ता बचपन में ही मजबूत हो गया था. जाहिर है, स्वाभाविक तौर पर मुझे इसे करियर के तौर पर अपनाना ही था.

फिर भी बाॅलीवुड में आपके शुरुआती साल बतौर अभिनेता के रहे ?

असल में, इसके पीछे इंडस्ट्री में दाखिल होने की मेरी छटपटाहट थी. मैं किसी भी कीमत पर फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा बनना चाहता था. इसी के मद्देनजर मैंने अंगारे, अपने दम पर जैसी फिल्मों में छोटी भूमिकाएं कीं. इन फिल्मों से बतौर अभिनेता तो मुझे कोई खास फायदा नहीं हुआ, लेकिन इस काम ने मुझे आत्मविश्वास दिया. मुझमें इस बात का यकीन आया कि मैं भी इंडस्ट्री में अपनी छाप छोड़ सकता हूं.

अभिनेता से निर्देशक बनने तक का सफर आसान तो नहीं रहा होगा ?

बेशक. मुझे भी संघर्ष के लंबे दौर से गुजरना पड़ा. लेकिन इस दौरान मैंने कभी भी हौसला नहीं खोया. बतौर अभिनेता कुछेक फिल्मों में नजर आने के बाद मुझे अंदाजा हो गया था कि मेरी मंजिल अभिनेता बनना नहीं, बल्कि निर्देशक बनना है.

तो फिर आपने यह लक्ष्य कैसे हासिल किया?

मैं क्वांटम फिल्म कंपनी के साथ जुड़ा. उनके साथ मिलकर मैंने 2007 में पहली फिल्म बनाई. फिल्म का नाम था- लेडी गोडीवा: बेक इन द सीड्स. इसके साथ ही एक अन्य फिल्म में क्रिएटिव डायरेक्टर की भूमिका भी निभाई. और अब बतौर निर्देशक मेरी पहली फिल्म थैंक्स मां रिलीज होने जा रही है.

पहली फिल्म के लिए ही आपने जोखिमभरा विषय चुना. नाकामयाबी का डर नहीं लगा.

मैं काम करने में यकीन करता हूं, नतीजे की उम्मीद नहीं करता. जब मुझे लावारिस बच्चों की कहानी पसंद आई, तो मैंने तय कर लिया था कि यही मेरी पहली फिल्म होगी. बेशक फिल्म में इंडस्ट्री के बड़े सितारे नहीं है, लेकिन एक दिल को छू जाने वाली कहानी है. और मेरा हमेशा से मानना रहा है कि एक अच्छी कहानी को दर्शक हमेशा पसंद करते हैं.

थैंक्स मां की कहानी के बारे में कुछ बताएं ?

दरअसल, इस फिल्म का विचार मेरे दिमाग में तब आया, जब मैं एक दिन अपने घर से आॅफिस की ओर आ रहा था. रास्ते में ट्रॅाफिक के चलते एक जगह कार रोकी, तो सड़क के किनारे मुझे लावारिस बच्चे कचरा बीनते नजर आए.ं बस यहीं से मेरी फिल्म की कहानी मिल गई. इसके बाद मैंनें इस कहानी को क्वांटम फिल्म्स के अपने साथियों को बताया और इस तरह फिल्म अस्तित्व में आई.

बाॅलीवुड में आजकल मसाला फिल्मों का दौर है, लेकिन आपने पहली ही फिल्म में संवेदनषील और लीक से हटकर कहानी कहने का जोखिम उठाया ?

मैं मसाला और कलात्मक फिल्मों के इस अंतर को नहीं मानता. मेरे विचार से कोई भी कहानी कलात्मक या मसाला नहीं होती, बस उसे पर्दे पर पेष उस तरह से किया जाता है. सभी कहानियां दिलचस्प होती है. यह पूरी तरह से निर्देषक के ऊपर होता है कि वह उस कहानी को किस तरह प्रस्तुत करता है. इसलिए पहली फिल्म के लिए इस तरह का विषय चुनते हुए मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. मेरा मानना है कि संवेदनषील और अच्छी कहानी वाली फिल्मों को दर्षक हमेषा पसंद करते हैं. और फिर, लावारिस बच्चों की समस्या हमारे देष की एक प्रमुख समस्या है.

इस बारे में जरा और विस्तार से बताईए ?

असल में, लावारिस बच्चों की समस्या हमारे देष की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है. यह अलग बात है कि मीडिया इस समस्या की ओर कोई ध्यान नहीं देता. न ही सरकार इस समस्या को सुलझाने के लिए कोई गंभीर प्रयास करती है. जबकि हकीकत यह है कि रोजाना 270 से भी ज्यादा मासूम बच्चें लावारिस जिंदगी गुजारने के लिए छोड़ दिए जाते हैं. यह आंकड़ा मुझे अपनी कहानी के लिए कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ वक्त बिताने के दौरान पता चला. दुखद बात यह है कि इतनी बड़ी तादाद में बच्चें सिर्फ गरीबी के चलते ही नहीं छोड़े जाते, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर बेईज्जती से बचने के लिए भी माएं इस तरह के कदम उठाने को मजबूर हो जाती है. इसी के चलते यह एक जटिल समस्या बन गई है.


तो फिर आपकी फिल्म की कहानी क्या हैं?

यह एक ऐसे बारह वर्षीय बच्चें की कहानी है, जो मुंबई के फुटपाथ पर अपने दोस्तों के साथ लावारिस जिंदगी जीता है. एक दिन उसे दो दिन की मासूम बच्ची लावारिस अवस्था में मिलती है. इसके बाद वह बच्चा अपने दोस्तों के साथ मिलकर न सिर्फ उसे संभालने का जिम्मा उठाता है, बल्कि उसे उसकी मां तक पहुंचाने की कसम भी खाता है. फिल्म के आखिर में वह अपने मकसद में कामयाब होता है, लेकिन इस बीच उसे दुनिया की हकीकत पता चलती है. नतीजतन, मां को लेकर उस लावारिस बच्चें ने अपने मन-मंदिर में जो छवि बना रखी थी, वह पूरी तरह चकनाचूर हो जाती है.

फिल्म के कलाकारों के बारे में बताइए?

मेरे भतीजे शेम्स पटेल ने फिल्म के बारह वर्षीय नायक की भूमिका निभाई है. इसके अलावा, बाकी सभी बाल-कलाकार हमनें मुंबई की झुग्गी-बस्तियों से ही लिए हैं. इसके लिए कईं महीनें तक तीन सौ से भी ज्यादा बच्चों का टेस्ट लिया गया, जिसमें से आखिर में चार बच्चें चुने. शेम्स पटेल को फिल्म में बेहतरीन भूमिका के लिए हाल ही में देष के सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो कि हमारे लिए बेहद गर्व की बात है. इससे हमारा उत्साह कईं गुना बढ़ गया है.

फिल्म अंतरराष्ट्रीय महोत्सवों में भी खूब तारीेंफें बटोर चुकी हैं.

हां. यह मेरे लिए गर्व की बात है कि मेरी फिल्म ने भारतीय सिनेमा को विश्व स्तर पर तारीपफें दिलाईं. हमारी फिल्म को एडिनबर्ग और कान्स महोत्सव में खूब पसंद किया गया. अब भारतीय दर्शकों की बारी है. मुझे उम्मीद है कि वे भी मेरी फिल्म की संवेदनशनील कहानी को पसंद करेंगे. देष में भी हमारी फिल्म की तुलना स्लमडाग मिलियनेयर से की जा रही है.

थैंक्स मां के बाद अगली फिल्म?

मेरी अगली फिल्म एक प्रेम कहानी होगी. वह मसाला फिल्म तो होगी, लेकिन फिर भी मुंबइयां फिल्मों से हटकर होगी.


Tuesday, June 29, 2010

अच्छी फिल्में ही बनाउंगा: नीरज पाठक


फिल्म निर्माण की किसी एक विधा में दक्षता हासिल करना ही बहुत बड़ी बात है, लेकिन कुछ बिरली शख्सियतें ऐसी भी होती हंै, जो प्रत्येक विधा में अपनी छाप छोड़ जाती हैं. बीते दौर के बाॅलीवुड की बात करें तो गुलजार ऐसी ही शख्सियत थीं, जिन्होंने फिल्म निर्देशन के साथ ही लेखन में भी नई ऊंचाइयों को छुआ. वर्तमान में भी बाॅलीवुड में राजकुमार हिरानी, करण जौहर, आदित्य चैपड़ा, अनुराग कश्यप जैसी हरफनमौला शख्सियतें भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने में जुटी हुई हैं. 12 मार्च को रिलीज हुई फिल्म राइट या रांग के निर्देशक नीरज पाठक भी एक ऐसी ही शख्सियत हैं. बतौर लेखक नीरज पाठक ने शाहरुख खान अभिनीत परदेस और धर्मेंद्र, सनी देओल और बाॅबी देओल अभिनीत अपने जैसी फिल्में लिखी हैं. और अब हाल ही में उन्होंने अपनी फिल्म राइट या रांग की रिलीज के साथ बतौर निर्देशक नई पारी शुरू की है. 12 मार्च को रिलीज हुई राइट या रांग आईपीएल और परीक्षाओं के चलते भले ही उम्मीद के मुताबिक कमाई नहीं कर पाई हो, लेकिन आलोचकों ने फिल्म को खूब सराहा. प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश.
कुछ अपने बारे में बताएं?
मुझे बचपन से ही फिल्मी दुनिया अपनी ओर खींचने लगी थी. इसीलिए मैंने इसे अपने करियर के तौर पर अपनाने का फैसला किया और आंखों में सपने लिए थियेटर से शुरूआत की.
तो फिर, इंडस्ट्री में पहला ब्रेक कैसे मिला?
पहला बे्रेक मुझे सुभाष घई ने दिया. यह 1997 के आसपास की बात है. वे उन दिनों शाहरुख खान और महिमा चैधरी के साथ परदेस फिल्म बना रहे थे. मुझे इस फिल्म को लिखने का मौका मिला. मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे पहली ही फिल्म में घई साहब जैसी फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज निर्देशक के साथ काम करने का मौका मिला. फिल्म सुपरहिट रही और इसी के साथ मेरा करियर भी चल पड़ा.
लेकिन इंडस्ट्री में आपको सबसे ज्यादा अपने फिल्म के लेखक के तौर पर जाना जाता है?
हां. और मुझे इस बात का बेहद गर्व है. परदेस फिल्म से शानदार आगाज करने के बाद मैंने चाहत, जुर्म और दीवानगी जैसी फिल्मों के लिए भी लिखा. अक्षय खन्ना और अजय देवगन अभिनीत दीवानगी के लिए संवाद लिखे, चाहत के लिए गाने लिखे और जुर्म की पटकथा लिखी. लेकिन मेरे करियर में सबसे अहम मोड़ अपने लिखने के बाद आया.
अपने फिल्म को लिखने की शुरुआत कहां से हुई?
दरअसल, अनिल शर्मा एक ऐसी फिल्म बनाना चाहते थे, जिसमें धर्मंेद्र अपने दोनों बेटों- बाॅबी और सनी के साथ नजर आएं. इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने की कहानी लिखी. बस इसके बाद जो कुछ हुआ, वह अपने आप में एक इतिहास है. अपने पहली फिल्म है, जिसमें देओल परिवार के तीनों सितारे एक साथ नजर आए. इस फिल्म ने मुझे इंडस्ट्री में मजबूती के साथ स्थापित कर दिया. अनिल शर्मा और धरमजी ने भी इस फिल्म के लिए पूरा क्रेडिट मुझे दिया. इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा और कुछ और नया कर गुजरने का जज्बा भी आया.
आपको इंडस्ट्री के हरफनमौला लोगों में शुमार किया जाता है.
वो शायद इसलिए कि मैं गीत, पटकथा लेखन और निर्देशन तीनों विधाओं में खुद को आजमा चुका हूं. मेरे ख्याल से फिल्म निर्माण के प्रत्येक पहलू पर ध्यान दिया जाना चाहिए और मैंने ऐसा ही किया. दरअसल मैं शुरू से ही निर्देशक बनना चाहता था. अपने फिल्म की शूटिंग के दौरान मैंने यह बात सन्नी देओल को बताई. उन्होंने मेरी बात को पूरी गंभीरता से लिया और इस तरह बतौर निर्देशक मेरी पहली फिल्म राइट या रांग भी रिलीज हो गई है.
लेकिन फिल्म टिकट खिड़की पर उम्मीद के मुताबिक कमाई नहीं कर पाई?
हां, यह बेहद दुखद बात रही. मेरे खयाल से हमने फिल्म की रिलीज के लिए गलत वक्त चुना. 12 मार्च को ही आईपीएल की भी शुरुआत हुई थी. उसी दौरान देशभर में परीक्षाएं भी जारी थीं. इसी के चलते फिल्म को उस तरह का रिस्पांस नहीं मिल पाया, जिसकी हमें उम्मीद थी.
तो फिर राइट या रांग में आपके लिए अच्छा क्या रहा?
भले ही राइट या रांग उम्मीद के मुताबिक कमाई नहीं कर पाई, बावजूद इसके यह फिल्म जिंदगीभर मेरी यादों में बनी रहेगी. सबसे बड़ी बात तो यह रही कि फिल्म को आलोचकों ने खूब सराहा. देश के लगभग सभी बड़े फिल्म विश्लेषकों ने राइट या रांग को एक ऊंचे दर्जे की फिल्म करार दिया. कुछ आलोचकों ने तो इसे श्रीराम राघवन की थ्रिलर जाॅनी गद्दार के बाद पिछले कुछ सालों में बाॅलीवुड की सबसे बेहतरीन थ्रिलर करार दिया. बतौर निर्देशक पहली ही फिल्म की रिलीज के बाद इस तरह की प्रतिक्रियाओं ने मेरा आत्मविश्वास और ज्यादा बढ़ा दिया है.
आप तो इस फिल्म के निर्माता भी बन गए हंै?
हां. और यह मेरे करियर की सबसे बड़ी उपलब्धि है. वह इसलिए क्योंकि आज से दस साल पहले मैंने बतौर लेखक फिल्म इंडस्ट्री में अपने करियर की शुरुआत सुभाष घई साहब के साथ ही की थी. संयोग देखिए कि बतौर निर्माता पहली फिल्म भी उनके साथ ही है. असल में, हमने राइट या रांग फिल्म को घई साहब की कंपनी मुक्ता आटर््स के साथ मिलकर बनाया है. मेरे सबसे करीबी दोस्त कृष्ण चैधरी के साथ मिलकर मैंने प्रोडक्शन हाउस खोला है. उम्मीद है कि भविष्य में भी इसी तरह मनोरंजक फिल्में बनाते रहेंगे.
राइट या रांग के बाद आगामी प्रोजेक्ट?
एक फिल्म और है सन्नी देओल के साथ. द मैन नामक इस फिल्म में सनी के साथ शिल्पा शेट्टी हैं. खास बात यह है कि सन्नी इस फिल्म में मेरे सह-निर्देशक भी हैं. फिल्म की आधे से ज्यादा शूटिंग हो चुकी है. साल के आखिर तक इसे भी रिलीज करने के बारे में सोचा है. इसके साथ ही सन्नी देओल के साथ एक अन्य फिल्म गणित शुरू करने जा रहा हूं. उत्तरप्रदेश की राजनीति पर आधरित इस फिल्म में सन्नी के साथ ही दो अन्य अभिनेता भी होंगे. उम्मीद है साल के मध्य तक हम इस फिल्म की शूटिंग भी शुरू कर पाएंगे.

राम गोपाल वर्मा एक चुका हुआ फिल्मकार


इन्दौर के एक मल्टीप्लेक्स से मैं चंद घंटे पहले ही रामगोपाल वर्मा के बैनर तले रिलीज हुई फिल्म फूंक-2 देखकर बाहर निकला हूं. अप्रेल के महीनें में देष के अन्य हिस्सों की तरह ही मालवा में भी बौखला देने वाली गर्मी पढ़ रही है. लेकिन फिर भी,, मैं इस 45 डिग्री की गर्मी की वजह से नहीं, बल्कि फिल्म की वजह से बौखलाया हूं. वजह, मेरा वह कीमती समय, जो रामू के इस वाहियात सृजन को देखने में खराब हुआ है. चूंकि सत्या, कंपनी जैसी फिल्मों की वजह से रामू का प्रषंसक हो जाना मेरी मजबूरी थी., इसलिए उसी प्रष्ंासक दिल का खयाल रखते हुए मैं आईपीएल के मोह को परे रखते हुए फूंक-2 को देखने पहुंुच गया. लेकिन अफसोस, कि अब मुझे अपने फैसले पर पछतावा हो रहा है. इससे भी बढ़कर मुझे दुख हो रहा है कि कभी मेरे दिल के बेहद करीब रहा रामगोपाल वर्मा नामक यह प्रतिभावान फिल्मकार अब पूरी तरह से मानसिक तौर पर दिवालिया हो चुका है. तो अब ऐसे में मेरा मन करता है कि मैं विचार करूं कि आखिर रामू के कॅरिअर में यह नौबत क्यों आई ? क्यों उसके कट्टर प्रषंसक भी अब उसकी फिल्में न देखने की कसमें खाने लगे हैं ?
आखिर में मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ‘ अति सर्वत्र वर्जयते ’ की पुरानी कहावत वर्मा के ऊपर भी पूरी तरह से लागू होती जा रही है. किसी जमाने में मुंबईयां फिल्म इंडस्ट्री के सबसे विचारषील निर्देषकों में शुमार होने वाले रामू एक के बाद एक वाहियात फिल्मों के बाद अब तेजी से अपनी पहचान खोते जा रहे हैं. दरअसल, रामू ने अपनी प्रयोगवादी निर्देषक की छवि पर इतराते हुए कुछेक साल पहले एक गर्व भरी घोषणा की थी कि आने वाले समय में वे प्रत्येक सप्ताह अपने बैनर की एक फिल्म रिलीज करेंगे. इसका मतलब कि साल में चालीस से भी ज्यादा फिल्में रिलीज करने का दंभ भरा था रामगोपाल वर्मा ने. कुछेक समय के लिए उन्होंने यह कोषिष भी की,. नतीजनत, डरना मना है, डरना जरूरी है, नाच, डी, गायब जैसी दर्जनों वाहियात फिल्में वर्मा की फैक्ट्री से निकली, जिन्होंने उनकी साख पर बट्टा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसका नतीजा यह हुआ कि कभी इंडस्ट्री का अग्रणी रहा यह फिल्मकार अब पूरी तरह से अछूत हो गया है. अमिताभ बच्चन को छोड़ दे तो इंडस्ट्री का कोई भी बड़ा सितारा रामू के साथ काम करने को तैयार नहीं है. आजम खान, के सेरा सेरा जैसे काबिल निर्माता और फाइनेंसरों ने रामू से किनारा कर लिया हैं. यहां तक कि रामू ने अंतरा माली,, प्रियंका कोठारी जैसी जिन हिरोईनों के चक्कर में अपने कॅरिअर का कबाड़ा कर लिया, वे भी अब उनसे दूर जा चुकी है.
तो रामू अकेला पढ़ गया है. 2001 की बात है, जब मैं जूहू बीच के किनारे स्थित रामू के आॅफिस को बाहर से देखने गया था. उस वक्त रामू का जलवा इस कदर था कि दर्जनों संघर्षरत कलाकार उसके आॅफिस के बाहर खड़े रहते थे. लेकिन अब यह जलवा खत्म हो चुका है. अब रामू ने अपना आॅफिस बदल लिया है. लेकिन उस आॅफिस के सामने ज्यादा भीड़ खड़ी नजर नहीं आती है.
वजह, इंडस्ट्री में रामू को चूका हुआ मान लिया गया है. उनकी पिछली चंद फिल्मों पर नजर डालें तो रण मीडिया पर केंद्रित एक कमजोर फिल्म थी,, फूंक ने दर्षकों को डराने के बजाए हंसाया ज्यादा, तो वहीं अज्ञात तो एक आधी-अधूरी फिल्म थी. जाहिर है, इतनी नाकाबियों के बाद अगर इंडस्ट्री ने रामू के बारे में यह राय बना ली है, तो इसमें कोई आष्चर्य नहीं है. यही दुनिया का रिवाज है.
और दुनिया के रिवाज के मुताबिक रामू अब एक चुका हुआ फिल्मकार है.

फिल्मों का बुरा हश्र


पिछले सप्ताह देष के सिनेमाघरों में रिलीज हुई दो फिल्मों पाठषाला और फूंक-2 बाॅलीवुड में एक नए चलन की ओर ईषारा करती है. यह ईषारा है इन दिनों रिलीज हो रहीे फिल्मों की कहानियों और पर्दे पर उनके फिल्मांकन के सिलसिले में. गौर कीजिए, पाठषाला और फंूक-2 दोनों ही फिल्मों की कहानी बेहद उम्दा थी. बावजूद इसके दोनों ही फिल्में टिकट खिड़की पर औंध्ेा मूंह गिरी. न सिर्फ दोनों फिल्में दर्षकों का दिल जीतने में नाकामयाब रही, बल्कि आलोचकों ने भी दोनों फिल्मों को सिरे से नकार दिया.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर अच्छी कहानी के बावजूद दोनों फिल्मों का बुरा हश्र क्यों हुआ ? इसका जवाब यही है कि बेषक दोनों फिल्मों की कहानी अच्छी थी, लेकिन दोनों ही निर्देषक इन अच्छी कहानियों को सही ढंग से पर्दे पर उकेर नहीं पाएं. मतलब यह कि कहानी का ‘आइडिया’ अच्छा था, लेकिन जब इसे दृष्यों में बांटने की नोबत आई, तो निर्देषक और उनके कहानीकार साथी इसमें नाकाम रहे. इसका नतीजा यह रहा कि अच्छी-भली कहानी होने के बावजूद दोनों ही फिल्में न तो दर्षकों का दिल जीत पाई और न ही आलोचकों की कलम को.
और ऐसा भी नहीं है कि यह पहली बार हुआ है. हैरानी इसलिए होतीे है कि बाॅलीवुड में पिछले कईं सालों से यही हो रहा है. बेषक हमारी इंडस्ट्री में बीतें कुछ सालों में नए प्रतिभावान निर्देषक और कहानीकार आएं है, जो लीक से हटकर काम करने में भरोसा करते हैं. अनुराग कष्यप, दीबाकर बनर्जी, शषांत शाह जैसे चिर-परिचित नामों के साथ ही प्रत्येक साल दर्जनों ऐसे नए निर्देषक और कहानीकार अपनी फिल्मों को लेकर भारतीय दर्षकों के सामने आते हैं, जो एक नई कहानी, नया विचार परोसते हैं. लेकिन दुर्भाग्य की बात यही है कि इसके बावजूद उनकी फिल्में औंधे मूंह गिर जाती है. पिछले एक-दो साल के दौरान रिलीज हुई फिल्मों पर नजर डालें, तो लक बाय चांस, सिकंदर, कुर्बान, वेल डन अब्बा, तुम मिले, दिल्ली-6, कार्तिक कालिंग कार्तिक ऐसी ही कुछ फिल्में है, जिनकी कहानी का मूल ‘आइडिया’ बेहद उम्दा था, बावजूद इसके ये फिल्में दर्षकों और आलोचकों दोनों के लिए ही बोझिल अनुभव ही साबित हुई. पहले बात करते हैं, सिकंदर फिल्म की. जम्मू-कष्मीर के आतंकी माहौल के बीच एक लड़के की दास्तां दिल झकझोर देने वाली साबित हो सकती थी, लेकिन नए निर्देषक पियुष झा ने कहानी में राजनीतिक कोण डालकर पूरी कहानी का कबाड़ा कर दिया. नतीजतन, वह एक संवेदनषील फिल्म बनने के बजाए राजनीतिक भाषणबाजी वाली फिल्म बनकर रह गई. इसी तरह सैफ अली खान और करीना कपूर अभिनीत कुर्बान मुस्लिम आतंकवाद की थीम वाली अच्छी कहानी थी, लेकिन निर्देषक ने इसे इस कदर उबाउ बना दिया कि फिल्म में मनोरंजक दृष्यों के लिए ही दर्षक तरस गए. वहीं, इमरान हाषमी और सोहा अली खान अभिनीत फिल्म तुम मिलें मुंबई की बारिष के बीच फंसे एक प्रेमी जोड़े की उम्दा कहानी थी, लेकिन फिल्म में निर्देषक मोहित सूरी ने इतने प्लेषबेक डाल दिए कि फिल्म अपने मूल भाव से भटक गई.
बात बिल्कुल साफ है, कि अच्छी कहानियों के बावजूद हमारे फिल्मकार अच्छी फिल्में नहीं बना पा रहे हैं. नतीजा यह कि बाॅलीवुड अभी भी साल में 300 से ज्यादा फिल्में बनाता है और अभी भी इसमें से नब्बे फीसदी फिल्में बूरी तरह से नाकाम साबित होती है. जाहिर है, इस खराब रिकाॅर्ड को सुधारने के लिए बाॅलीवुड को अभी भी अपनी कार्यप्रणाली में भरपुर सुधार करने की गुंजाइष है.

इस राजनीति की तारीफ कीजिए


2 जून को देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज हुई राजनीति में एक बहुत ही उम्दा संवाद है- ‘राजनीति में फैसले अच्छा या बुरा देखकर नहीं लिए जाते हैं, बल्कि उनकी अहमियत देखी जाती है, मौका देखकर.’ नाना पाटेकर, अजय देवगन, मनोज वाजपेयी, रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ जैसे इंडस्ट्री के आधा दर्जन बड़े सितारों से सज्जित इस फिल्म में दर्जनों ऐसे उम्दा संवाद हैं, जिन्हें सुनकर सिनेमाघर में दर्शक तालियां पीट रहे हैं. प्राचीनकालीन महाभारत की कथा से प्रेरित प्रकाश झा के निर्देशन में बनी इस फिल्म को सिर्फ आलोचकों ने सराहा है, बल्कि दर्शकों ने भी सिर माथे पर बिठाया है. नतीजतन, राजनीति 2010 की अब तक की सबसे कामयाब फिल्म साबित हो रही है. हालांकि फिल्म की कहानी को देखते हुए आलोचकों ने इसकी कामयाबी पर संदेह जताया था. लेकिन फिल्म ने देशभर में छप्परपफाड़ कमाई करके सभी को हैरत में डाल दिया है. 2 जून, शुक्रवार को देशभर के पंद्रह सौ से ज्यादा सिनेमाघरों में रिलीज होने के बाद फिल्म ने पहले छह दिनों में ही 50 करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई करके 2010 में सबसे अच्छी शुरुआत की. इतना ही नहीं, फिल्म थ्री इडियट्स और गजनी के बाद पहले सप्ताह में कमाई के मामले में भारतीय फिल्म इतिहास की तीसरी सबसे बड़ी फिल्म साबित हुई है.

फिल्म की कामयाबी ने नाकाम फिल्मों के ढेर पर खड़ी इंडस्ट्री को भी राहत पहुंचाई है. 2010 की पहली छमाही में- काइट्स, ब्ल्यू जैसी महंगी फिल्मों की नाकामी झेलने के बाद इंडस्ट्री भारी घाटे से गुजर रही थी. इस बीच, आईपीएल और परीक्षाओं के चलते भी इंडस्ट्री को भारी नुकसान झेलना पड़ा. लेकिन राजनीति की ऐतिहासिक कामयाबी ने इंडस्ट्री के चेहरे पर फिर से मुस्कान ला दी है. साथ ही, राजनीति की टिकट खिड़की पर कामयाबी से यह मिथक भी टूट गया है कि दर्शक अब बहुसितारा फिल्मों को लेकर उत्सुक नहीं रहते हैं. प्रकाश झा के महाभारत के इस आधुनिक संस्करण में आधा दर्जन से भी ज्यादा चर्चित सितारे थे और दर्शकों ने सभी का खुले दिल से स्वागत किया. फिल्म की कामयाबी ने रणबीर कपूर को एक बार फिर सबसे चर्चित युवा सितारा बना दिया है, जिनका करियर राॅकेट सिंह: सेल्समेन आॅफ ईयर की नाकामी के बाद डगमगा गया था. इसी तरह कैटरीना कैफ के हिस्से में एक और सफल फिल्म दर्ज हो गई है.

वहीं, फिल्म की कामयाबी ने प्रकाश झा को भी इंडस्ट्री के शीर्ष निर्देशकों में जमात में पहुंचा दिया है. हालांकि झा की पिछली दो फिल्में अपहरण और गंगाजल भी टिकट खिड़की पर कामयाब रही थी. लेकिन राजनीति ने झा के करियर की सभी फिल्मों की कुल कमाई से भी ज्यादा कमाई की है. असल में, राजनीति झा के साथ ही इसके प्रत्येक सितारे के करियर की भी सबसे कामयाब फिल्म साबित हो रही है.

खास बात यह है कि फिल्म देश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को साहस के साथ सामने लाती है. महाभारत से प्रेरित फिल्म की कहानी में परिवार के भीतर राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई को दिखाया गया है. यह लड़ाई ऐसे निम्न स्तर तक पहुंच जाती है कि दो भाइयों के बेटे एक-दूसरे की जान लेने पर आमादा हो जाते हैं. वर्तमान में, भारतीय राजनीति भी इसी तरह के संक्रामक दौर से गुजर रही है, जहां नैतिक मूल्यों की कोई जगह नहीं है. क्षेत्रीय क्षत्रपों के प्रभुत्व वाले इस दौर में समाजसेवा और देशसेवा जैसे शब्द निरर्थक साबित हो चुके हैं और ताकत, पैसा हासिल करना ही राजनेताओं का एकमात्र लक्ष्य रह गया है. कुर्सी के पीछे नैतिक मूल्यों को तार-तार करने वाले शिबू सोरेन, पारिवारिक मोह में फंसकर ध्ृातराष्ट्र बनकर रह गए समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायमसिंह यादव, एम. करुणानिधि जैसे नेताओं को देखने के बाद प्रकाश झा की राजनीति एक सार्थक फिल्म प्रतीत होती है.

फिल्म की धमाकेदार कामयाबी के साथ झा उन चुनिंदा निर्देशकों में शामिल हो गए हैं, जिन्होंने राजनीति की गंदगी को कामयाबीपूर्वक सिनेमाई पर्दे पर उकेरा. दशकों पहले 1971 मेरे अपने नामक एक फिल्म आई थी. महान फिल्मकार-गीतकार गुलजार के करियर की यह पहली फिल्म थी, जिसने तत्कालीन राजनीतिक दौर की विसंगतियों को बखूबी उकेरा था. सत्तर के दशक के उस दौर में भी आम जनता के लिए राजनीति में कोई जगह नहीं थी और प्रकाश झा की फिल्म यही साबित करती है कि वक्त बीतने के साथ हालात बदतर ही हुए हैं. बिहार की राजनीति में अच्छा-खासा दखल रखने वाले झा इस फिल्म के लिए बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने राजनीति के कीचड़ में रहते हुए भी इस यादगार फिल्म के जरिए एक मनमोहक पफूल खिला दिया है.